Tuesday, August 23, 2011

निराशा

अगर मैं शायर होता तो आज  बहुत अच्छा लिखता.. हाँथ मचल रहे हैं लेकिन कलम साथ नहीं दे रही है.. मेरे पास जो कलम है शायद उसको ये हाँथ पसंद नहीं है.
 मेरे पास और कोई चारा नहीं सिवाय घर में बैठे रहने और मेरे चारो तरफ फैले  हुए सामान को देखने के सिवा . कोई आशा की किरण कही से भी नहीं आ रही है,  हाँ ये बल्ब की रौशनी जरूर आंखी में चुभ रही है ,  मुश्किल ये नहीं की मैं निराश हूँ या कोई आशा नहीं, मुश्किल ये है की निराशा के भंवर में इतना भी नहीं डूबा की वहा  से ही आशा की किरण आ सके( जैसा की कहा जाता है .. हालांकि मुझे इस बात पर हमेशा ही शक रहा है )..
एक मुश्किल और भी है बैठा  था आज अपनी निराशा को कागज़ पर लिखने .. लेकिन सात लाईन लिखने तक ही निराशा खत्म हो चुकी है और मैं एकदम संतुलन की अवस्था में हूँ ...
 एक और प्रयास विफल रहा !!!

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