Tuesday, December 27, 2011

DON-2


सिंघासन का हिलना और बादशाहत का खतम हो जाना दो अलग अलग बातें हैं, इस लिहाज़ से शाहरुख खान आज भी हिंदी फ़िल्म्स के बादशाह हैं लेकिन उनको एक बात समझनी होगी की बादशाहत को कायम रखने के लिए सिंघासन को मज़बूत किये जाने का वक्त आ चुका है.

फरहान अख्तर द्वारा ५ साल के बाद निर्देशित फिल्म डान प्रदर्शित हो चुकी है. जिसमे
डान की (शाहरुख खान) नज़र अब यूरोप में अपनी धाक जमाने की है और इस सिलसिले में वो जर्मनी का एक बैंक लूटना चाहता हैं. लेकिन यूरोपीय माफिया के लोग डान को जान से मारना चाहते हैं, दूसरी तरफ इंटरपोल भी डान के पीछे है. ऐसे में डान अपने पुराने दुश्मन वर्धान (बोमन इरानी) की मदद चाहता है. इस लिए डान खुद को गिरफ्तार करवा मलेशिया की जेल में पहुँचता है जहा वर्धान पहले से अपनी सजा भुगत रहा है. यहाँ से दोनों जेल तोड़ कर भाग जर्मनी के एक बैंक को लूटने की योजना बनाते हैं जिसमे कुछ अन्य अपराधी भी उनकी सहायता करते हैं. इनके बनाए प्लान का क्या होता है और बाद में खुलने वाले राज़ क्या हैं ये देखना दिलचस्प हो सकता है. जीहाँ कहानी यही है. 

फिल्म की कहानी और पटकथा फरहान अख्तर, अमीत मेहता और अमरीश शाह द्वारा लिखी गई है. डान जैसी किसी फिल्म के दूसरे पार्ट लिए ऐसी लचर कहानी का चुनाव बिलकुल ही उपयुक्त नहीं था. पटकथा फिल्म के पहले हिस्से में कई जगह ढीली और उबाऊ है. फिल्म एक “मास्टर-प्लान” को अंजाम देने की कहानी है लेकिन उसके शुरू होते होते ही फिल्म का एक बड़ा हिस्सा खतम हो चुका होता है. लेखक किसी भी योजना में किसी तरह का कोई रोमांच पैदा नहीं कर सके. हालांकि की एक नकारात्मक पात्र को नायक बनाए जाने की अपनी सीमाएं होती हैं, लेकिन अचानक पात्र को सहानुभूति दिए जाने का प्रयास और जबरदस्ती “ह्रदय-परिवर्तन” जैसी हर कोशिश काफी हास्यास्पद लगती है. फिल्म की नायिका रोमा (प्रियंका चोपरा) और डान के बीच की “केमेस्ट्री” को दिखाने का हर प्रयास काफी हास्यास्प्रद लगता है. नायक की भूमिका कितना बड़ा कलाकार क्यों न कर रहा हो, उसके पात्र को दमदार बनाये जाने के लिए बाकी पात्रों में जान होना भी जरूरी है. जिसका यहाँ पूरी तरह आभाव है.
जिस तरह डान की नज़र यूरोप पर है ठीक उसी तरह शाहरुख और निर्माताओं की नज़र भी योरोप ओर विदेशी बाजारों पर ही है, इसीलिए डान के पीछे चाहे कितने ही मुल्को की पुलिस क्यों ना लगी हो वो घूमता बहुत है और  फिल्म के खतम होने के पहले तक हर खतरे से बाहर है, जैसे हर किसी ने डान को ना मारने की कसम सी खा राखी हो. फिल्म के बाद में खुलने वाले राज़ जरूर आप को चौंका सकते हैं. फिल्म एक बड़े कैनवास पर बनी है जो कई बार आपको याद दिलाती रहेगी की फरहान अख्तर ने ये बड़ा “कैनवास” कहा से लिया है. 
फरहान अख्तर ने दिल चाहता है जैसी फिल्म बनाने के बाद जब अभिनय में खुद को अजमाने का सोचा तो सबको लगा था की कही एक अच्छा निर्देशक ना खो जाए. अभिनय में अपने जौहर दिखाने के बाद डान-२ में उनकी बतौर निर्देशक वापसी इस बात का अहसास दिलाती है की निर्देशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कही न कही प्रभावित हुई है. फरहान के लिए शायद शाहरुख की उपस्थिति ही उनको इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा रही होगी. किसी भी अच्छी (एक्शन-थ्रिलर) फिल्म के लिए बारीकियों को समझाना जरूरी होता है ना की दर्शकों को भ्रमित कर अपना काम निकालना. कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ भी ना समझ में आने वाला डाटा का आना जाना और कीबोर्ड पर जोर जोर से इंटर मारना तो मानो हर समस्या का हल हो गया है. वैसे तो डान सारी दुनिया में यु आ जा रहा है जैसे उसने काफी यातायात के नियम भी ना तोड़े हों और अचानक उसको मास्क पहने की जरूरत पड़ जाती है. या फिर निर्देशक ये बताना चाह रहे हों की सिर्फ हमारी पुलिस ही नहीं जर्मनी की पुलिस भी उतनी ही निकम्मी है. फरहान अख्तर ने इतना सारा काम अपने हांथो में ले लिया की शायद वो किसी भी काम से न्याय नहीं कर पाए, उनके द्वारा लिखे गए संवाद भी औसत दर्जे के हैं. फिल्म में डान का पात्र और ज्यादा मजेदार एवं दमदार संवाद की मांग करता है जो फिल्म में कही नहीं है.
फिल्म का “बैगराउंड” संगीत अच्छा है लेकिन फिल्म संगीत में इस बार शंकर-अहसान-लॉय मात खा गए. औसत दर्जे का संगीत और कही कही उबाऊ पटकथा आप को पहली बार एक “आईटम-नंबर” का कमी महसूस कराएगा.
जेसन वेस्ट का सिनेमेटोग्राफी काफी अव्वल दर्जे की है. “कार चेस” जैसे द्रश्य हालांकि आप कई बार देख चुके है लेकिन जेसन ने अपना काम ऐसे कई दृश्यों में बखूबी निभाया है. रितेश सोनी और आनंद सुबया ने फिल्म की एडिटिंग काफी अच्छी की है, हालांकि तेज़ी से घटना क्रम बदल रही फिल्मों की एडिटिंग पूरी तरह सॉफ्टवेर पर निर्धारित हो गयी है. “एक्शन-कांसेप्ट” द्वारा किये गए एक्शन द्रश्य काफी अच्छे हैं.
अभिनय की द्रष्टि से प्रियंका चोपरा डान-१ के मुकाबले इस बार बहुत ही अनुपयुक्त लगती है, उनके पास ऐसे ज्यादा द्रश्य नहीं थे जिसमे वे कुछ प्रभाव छोड़ पाती. लारा दत्ता को कम काम मिले जाने की आशंका थी लेकिन उन्होंने इस आशंका को कही पीछे छोड़ दिया और वे तीन चार दृश्यों में ही देखी गयी. बोमन इरानी ने अच्छा काम किया है और एक द्रश्य में वे हास्य पैदा करने में सफल रहे है. अली खान और नवाब शाह ने अपने काम के साथ न्याय किया है. कुनाल कपूर भी अपने काम में जंचते हैं. ओम पुरी को डान -१ की वजह से फिल्म रखा जाना शायद मजबूरी रही हो.
अब बात उनकी जिसकी वजह से ये फिल्म बनाए जाने का सोचा गया होगा जीहाँ शाहरुख खान. एक लंबे अरसे के बाद के शाहरुख खान को गले में स्वेटर बांधे और डिजायनर सूट्स के बाहर देखना अच्छा लगा. शाहरुख खान का एक एक्शन हीरो का “गेटअप” काफी अच्छा है. शाहरुख ने दिखाया की वो “लव और लड़ाई” दोनों में एक सामान सक्षम हैं. फिल्म में संवादों का अच्छा न होना और किसी दमदार पात्र का सामने ना होना उनके अभिनय में वो रंग नहीं भर पाया जो हो सकता था. शाहरुख खान ने उनको फिर से एक एक्शन फिल्म में देखे जाने की इच्छा को जगा दिया है.
शाहरुख की उपस्थिति और उनका नया लुक दर्शकों को जरूर सिनेमा घरों तक खींच के लाएगा और यही निर्माता चाहते भी होंगे. फिल्म के प्रदर्शन का समय भी उपयुक्त है इसलिए फिल्म की सफलता तो लगभग निश्चित ही है. उम्मीद है शाहरुख की अगली एक्शन फिल्म इससे बेहतर होगी. 

Wednesday, December 7, 2011

“द डर्टी पिक्चर”


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फिल्म निर्माताओं का एक वर्ग आज भी इस बात पर पूरी तरह विश्वास करता है की इन्टरटेनमेंट के सिर्फ तीन ही मतलब हो सकते हैं - सेक्स सेक्स और सिर्फ सेक्स और उनका मानना है की अगर जेब में पैसे ठूसने हों तो कहानी में सेक्स ठूसने के बजाये अब सेक्स में कहानी ठूसो इस लिहाज़ से सिल्क स्मिता की कहानी का चुनाव न सिर्फ एक बेहतरीन व्यावसायिक कदम है बल्कि ये फिल्म निर्माताओं को पूरी छूट देता है की फिल्म की हीरोइन को दिखाने के लिए उसके चहरे को दूसरे नंबर पर रखा जाए
बालाजी फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत द डर्टी पिक्चर एक ऐसी लड़की रेशमा ( विद्या बालन ) की कहानी है जो गाँव से भागकर मद्रास आई है और एक फिल्म स्टार बनाना चाहती है आगे बढ़ने की चाह में वो कुछ भी करने के लिए तैयार है, और आमतौर पर जैसा होता है सब कुछ करने के बाद भी उसके हाँथ जो आता है वो है फिल्मों में उत्तेज़क डांस करना जो फिल्म की सफलता का एक बेहतरीन मसाला है रेशमा को सुपरस्टार सूर्या (नसीरुद्दीन शाह) के साथ समझौता करने के एवज में उसके साथ काम करने का मौका मिलता है और वो सूर्या द्वारा बराबर इस्तेमाल हो रही है और अब रेशमा का नाम है सिल्क अब्राहिम (इमरान हाशमी) एक निर्देशक है जो विवेकपूर्ण फिल्मे बनाता है इसलिए फिल्मो के घटिया मसालों से नफरत भी करता है रमाकांत (तुषार कपूर) जो सूर्या का भाई है वो पेशे से एक फिल्म लेखक है इधर सिल्क का सूर्या द्वारा खुद को इस्तेमाल किये जाने का सच सामने आने के बाद वो सूर्या के भाई रमाकांत से इश्क की पींगे बढाने लगती है एक ऐसा वक्त आता है जहाँ सिल्क ना सिर्फ  रमाकांत द्वारा भी ठुकरा दी जाती है बल्कि इस सदमे के फलस्वरूप उसका शराब में डूबा रहना अब उसको काम से भी दूर ले जाता है कुछ घटनाक्रमों के बाद अब्राहिम, सिल्क की ओर देखता है जहा सिल्क के पास न अब रूप बचा है और न रुपया अब्राहिम और सिल्क आप को फिल्म के समापन पर ले जाते हैं

रजत अरोरा द्वारा लिखी गयी पटकथा एकदम उद्देश्यहीन तरीके से आगे बढती है और ज्यादातर जगहों पर उबाऊ है फिल्म में रोचकता बनाये रखने के लिए घटिया संवादों का सहारा लिया गया है फिल्म तथाकथित तौर पर दक्षिण भारतीय फिल्मो की अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है लेकिन जिस तरीके से सिल्क स्मिता के चरित्र को लिखा और दिखाया गया है, उसको देखकर ये समझना मुश्किल है की आखिर ये कहानी किसी भी निर्माता को फिल्म बनाने के लिए प्रेरित क्यों कर सकती है ना तो सिल्क का विद्रोही स्वभाव उभर कर आता है न ही उसके फ़िल्मी चकाचौंध के पीछे की असली जिंदगी का दर्द दिखता है न ही दर्शकों को पात्र से सहानभूति होती है फिल्म के एक संवाद में अब्राहिम, सिल्क से कहता है की “ तुम्हारे लिए आगे की ४ लाईन हैं बाकी की ४० लाईन मेरे लिए हैं” निर्माता निर्देशक ने आगे की उन ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है और पूरी कोशिश की है की आगे की ४ लाइन को पीछे की ४० लाईन तक कैसे बढ़ाया जा सकता है, जिसमे वे सफल भी रहे हैं हालांकि कुछ रीढविहीन फिल्म आलोचक इस बात पर विशेष जोर दे रहे हीं की फिल्म परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है लेकिन आप परिवार के साथ देखने के पहले ये सुनिश्चित कर ले की आप के परिवार और इन समीक्षकों के परिवार में क्या फर्क है
 फिल्म में अभिनय की द्रष्टि से कुछ उल्लेखनीय बाते जरूर है, जैसे की इस फिल्म को देखने की सिर्फ और सिर्फ एक वजह हो सकती है वो है विद्या बालन का इस पात्र को करने के लिए हाँ बोलना भारतीय सिनेमा में कितनी ऐसी अभिनेत्रियां होंगी जिन्होंने परदे पर खुद को सांवली, मोटी, उत्तेजक और कामुक या एक ढले हुए चहरे वाली अभिनेत्री दिखाने के लिए हाँ की होगी, और ऐसा करने के लिए मेहनत करना तो दूर की बात है विद्या को न सिर्फ इस अभिनय के लिए बल्कि ऐसा करने की हिम्मत के लिए भी प्रशंशा मिलनी चाहिए, और निसंदेह वे इस साल के कई पुरस्कारों से नवाजी जा सकती है इमरान हाशमी पर लगे फ़िल्मी ठप्पे के विपरीत उन्हाने ने ऐसे निर्देशक का रोल किया है जो फिल्मो में सेक्स और हिंसा को पसंद नहीं करता है जिसमे वो पूरी तरह जंचते है एक बात यहाँ कहना जरूरी है की नसीरुद्दीन शाह के फ़िल्मी जीवन पर नज़र डाली जाए तो इस रोल के लिए उनकी प्रसंशा नहीं की जा सकती हालांकि उन्होंने अपने काम को बेहतर ढंग से किया है लेकिन ये आपको सोचने पर मजबूर कर सकता है की क्या अब इन बड़े और महान अभिनेताओं को ऐसे रोल भी आकर्षित कर सकते हैं ?
तुषार कपूर ठीक हैं   

विशाल शेखर का संगीत फिल्म के मुताबिक ही है “उह्ह ला ला” चालू गाना है जो कुछ दिन अच्छा लगेगा, “मेरा इश्क सूफियाना” हालाँकि कर्णप्रिय है लेकिन उसके आते आते आप अपना संय्यम खो चुके होते हैं विजय एंथोनी द्वारा संगीतबद्ध गाना “नाक मुक्का“ जो बैकग्राउंड में बजाता है कुछ उम्मीद जगा सके उसके पहले खतम हो जाता  है   हालाँकि फिल्म के दोनों ही गाने फिल्माए अच्छे से गए है फिल्म की लम्बाई कम हो सकती थी, कई जगहों पर फिल्म बहुत धीरे आगे बढती है लेकिन उसका ठीकरा एडिटर के सर नहीं फोड़ा जा सकता प्रिया सुहास ने ८० के दशक का लुक अच्छा दिया है हालांकि उन्हें ज्यादातर फिल्मो के सेट ही दिखाने थे जो अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता की मांग नहीं करते 

फिल्म निर्देशक मिलन लुथरिया ने हमेशा ही सिनेमा की आगे की ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है और इस बात के लिए वो हमेशा ही चालू दर्जे के और जरूरत से ज्यादा “डायलागबाजी” ( काछे धागे, ... मुंबई ) पर बहुत यकीन करते हैं लेकिन इस फिल्म की विषयवस्तु ने उन्हें और भी मौक़ा दिया है की वे विशेष दर्शक वर्ग के लिए कुछ और भी “विशेष” दे पाए और उन्होंने अपने दिल की बात अब्राहिम के जरिये कही भी है की सफल निर्देशक विवेकपूर्ण फिल्मे बनाने वाला नहीं होता बल्कि वो होता है जो किसी भी स्तर तक जा के अपनी फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल करा सके  

अंततः ये कहा जा सकता है की जिस तरह से आज सेक्स और हिंसा को फ़िल्मी परदे पर मान्यता दिलाई जा रही है सिल्क स्मिता को अपने ८० के दशक में फिल्मो में आने का अफ़सोस होगा अगर वो आज होती तो शायद उन्हें आत्महत्या ना करनी पड़ती

“द डर्टी पिक्चर” सिल्क स्मिता द्वारा अभिनीत B-ग्रेड फिल्मो की तरह ही एक फिल्म है जिसे सेंसर बोर्ड और निर्माता दोनों ने ही A-ग्रेड दिया है, और इसमे सिल्क १० मिनिट के लिए नहीं बल्कि २ घंटे के लिए हैं

** Star

Thursday, November 3, 2011

Bela-Bahadur : Indrazaal Comics


The comic strip was created in December, 1976. Dacoity was at its worst in India in 1970s and the Bahadur series focussed a lot on dacoits.
Bahadur himself was the son of a dacoit Vairab Singh, who died in combat with the Police. Bahadur, then a teenager, was adopted by Vishal, the police officer who shot Vairab Singh.
Upon growing up, Bahadur set up the Citizen's Security Force or the Hindi translation Naagrik Suraksha Dal (NASUD) that aids the police in combating dacoits. Though Bahadur dealt with many kinds of villains, he displayed a much softer corner towards dacoits trying to rehabilitate them.One of his assistants Lakhan was also a reformed dacoit. After surrendering to the police, he started helping Bahadur in curbing crime..
Bela is Bahadur's love interest in the comic series and very skilled in martial arts. She assists Bahadur in his missions against the villains. Whenever, Bahadur would ask Bela to go out with him Bela's favorite reply was "Neki, aur puchh, puchh".
he other prominent characters featuring regularly in the series were Sukhiya, Mukhiya and Lakhan. While Sukhiya was a policeman, Mukhiya (meaning head of the village in Hindi) was the village leader.
Bahadur also got a dog Chammiya in some of the later stories.

Tuesday, November 1, 2011

रा-वन


रा-वन



एक बार मैंने आमिर खान से पूछा हम सिनेमा की हर विधा में सक्षम होने के बावजूद भी अच्छी साई-फाई फिल्मे क्यों नहीं बना पाते है? आमिर का जवाब था क्योंकि हम लेखन में निवेश नहीं करते हैं| लेकिन लेखन में 5 साल लगाने के दावों के साथ, आज भारत की सबसे महंगी साई-फाई फिल्म बन कर प्रदर्शित हो चुकी है|
इरोस इंटरनेशनल और रेड चिली की ये फिल्म शेखर सुब्रमनियम (शाहरुख ख़ान) की कहानी है जो लन्दन में अपनी पत्नी सोनिया (करीना कपूर) और बेटे प्रतीक (अरमान वर्मा) के साथ रहता और एक वीडियो गेम की कंपनी में काम करता है| वो अपने बेटे की मांग और उसे खुश करने के द्रष्टि से एक ऐसा गेम तैयार करता है जिसमे खलनायक उसके हीरो से ज्यादा ताकतवर है, इस सोच के साथ की सत्य की ही जीत होती है| समस्या तब खड़ी होती है जब गेम का विलेन रा-वन सुब्रमनियम के बेटे को मारने के लिए वर्चुअल रियल्टी से बाहर इंसानों की दुनिया में आ जाता है| अब प्रतीक को बचाने की जिम्मेदारी गेम के हीरो जी-वन की है, और वो भी वर्चुअल रिअलिटी से बाहर हमारी दुनिया में आ चुका है|

फिल्म के शुरू होते ही जो पहला ख्याल आप को आयेगा वो ये की यह एक आकर्षक दृश्यों वाली फिल्म है| विशेष प्रभाव और ग्राफिक्स आप को बांधे रखेंगे| और यही एक सफल फिल्म होने की निशानी है | रा-वन का प्रतीक और सोनिया का पीछा करना, जी-वन का पहली बार परदे पर आना, ये कुछ द्रश्य काफी आकर्षक हैं| ट्रेन में फिल्माया गया द्रश्य के लिए 26 कैमरों का प्रयोग किया गया, जो काबीले तारीफ़ है| सी एस टी स्टेशन का टूटना जैसे द्रश्य आप को जरूर हैरतअंगेज लगेंगे| रा-वन और जी-वन की कॉस्ट्यूम आकर्षक हैं| जी-वन का कॉस्ट्यूम दुनिया भर के “सुपर हिरोस” में सबसे अच्छे कॉस्ट्यूमस में से एक होगा||
फिल्म की जो सबसे अच्छी बात है वो है, सत्य की असत्य पर जीत (जो एक नियम का रूप ले चुका हैं) के सन्देश का एक और अनूठा उदाहरण| हम कम्पयूटर के अंदर तो किसी को भी जिता या हरा सकते हैं लेकिन अगर वर्चुअल दुनिया के लोग भी हमारी दुनिया में आए, तो ये नियम उन पर भी लागू होगा|

लेकिन अब दूसरा सवाल, जब आप इस फिल्म के प्रोमो में ये पाते हैं की ये 150 करोड के लागत से बनी भारत की सबसे महँगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्टंट्स और “स्पेशल इफ्फेक्ट्स” वाली फिल्म है, तब बारीकियों पर ध्यान दिया जाना लाज़मी हो जाता है|

किसी भी सुपर हीरो या साई-फाई फिल्म की खूबसूरती, निर्देशक के कल्पना की उड़ान की ऊँचाई और उड़ान के लिए दी गयी वजह की गहराई पर निर्भर करती है| निर्देशक अनुभव सिन्हा यहाँ दोनों ही मोर्चे पर असफल रहे हैं| किसी भी सुपर हीरो या साई-फाई फिल्म की खूबसूरती, निर्देशक के कल्पना की उड़ान की ऊँचाई और उड़ान के लिए दी गयी वजह की गहराई पर निर्भर करती है| निर्देशक अनुभव सिन्हा यहाँ दोनों ही मोर्चे पर असफल रहे हैं| निर्देशक ने कल्पना की जीतनी भी उड़ान की है उसको स्थापित करने के लिए उनके दिए गए कारण पूरी तरह समझ के परे हैं ! शहाना गोस्वामी के माध्यम से फिल्म के शुरू में दिया गया कारण सिर्फ दर्शकों को ये बताता है की, वो जो भी देखने जा रहे हैं उसका कारण उन्हें बता दिया गया है, अलबत्ता दिए गए कारण और गेम के पात्रों का हमारी दुनिया में बाहर आ जाने के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है|

निर्देशक और लेखक ने रिसर्च के नाम पर ज्यादा समय हालीवुड की फिल्मो को देखने में बिताया ऐसा ही लगता है ! समय समय पर आप टर्मिनेटर, ट्रॉन लिगेसी, स्पाइडरमैन जैसी फिल्मों की झलक देख सकते हैं, जिसकी शुरुआत फिल्म के पोस्टर से ही हो जाती है. (जो की बैटमैन से लिया गया है)
सुपर हीरो की फ़िल्में बच्चो को ही आकर्षित करने के हिसाब से बनाई जाती है, और ये है भी| इस लिहाज़ से अनुभव शर्मा और शाहरुख को समझना होगा की फिल्म के संवाद और द्रश्य कही कही अश्लील होने की हद्द तक खराब हैं, हाँ वो अलग बात है की शाहरुख का लक्ष्य अब मुख्यतः प्रवासी भारतीय ही होते हैं| भावनात्मक दृश्यों के बावजूद, सुपर हीरो से दर्शकों का कोई भी भावनात्मक जुड़ाव न होना एक बड़ी कमजोरी है| एक बेहतर साई-फाई फिल्म बनाने के लिए जरूरी तीनों बातें, देश में मौजूद एक बड़ा दर्शक वर्ग, देश में ही मौजूद टेक्नीशियन और बड़े बजट की सुलभता के बाद, इससे कही बेहतर की उम्मीद की जानी चाहिए| मसलन इससे कही कम लागत में बनी रोबोट से बेहतर रा-वन में ज्यादा कुछ नहीं|
फिल्म का सबसे लोकप्रिय गाना “छम्मकछल्लो” के लिए आप को थोडा इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन ये इंतज़ार आप को अखरेगा नहीं| गाने को बहुत अच्छा फिल्माया गया है| शोरशराबे और मारधाड के बीच “दिलदारा दिलदारा” गीत भी कानो को सुकून देगा|

अभिनय की द्रष्टि से कलाकार सहाना गोस्वामी, दलीप ताहिल, सतीश साह, टॉम वू तथा कुछ अन्य कलाकारों के लिया इतना कहना काफी होगा की ये फिल्म में हैं| रा-वन की भूमिका में अर्जुन रामपाल काफी जंचते हैं| अर्जुन रामपाल को अपने अंदर छुपा एक जबरदस्त खलनायक को पहचानना होगा, इसमे वे कमाल कर सकते हैं| करीना ने अपना काम बखूबी निभाया है हालाँकि “जब वी मेट” में करीना का गाली देना और इस फिल्म में गालियों में शोध करने में जमीन आसमान का फरक है| बेटे की भूमिका में अरमान वर्मा ने काफी अच्छा काम किया है| पहली फिल्म होने के बावजूद उनके चेहरे पर एक आत्मविश्वास है|
ये फिल्म पूरी और पूरी तरह शाहरुख खान के कंधो पर टिकी है| शाहरुख खान वो करिश्माई शख्शियत हैं जिनकी उपस्थिति ही सफलता की गारंटी है| लेकिन रुकि| शायद यही करिश्मा ही ‘अभिनेता शाहरुख’ की सबसे बड़ी कमजोरी भी है| वो किसी भी किरदार में हो सबसे पहले वो शाहरुख ही लगते हैं| जिन दो फिल्मो में शाहरुख ने खुद से अलग दिखने का प्रयास किया वे थी “रब ने बना दी जोड़ी” और “माय नेम इस खान”| अफ़सोस की उनका न सिर्फ पहला किरदार “रब ने बना दी जोड़ी” का सुरी ही लगता है बल्कि जी-वन बने शाहरुख कही कही तो “माय नाम इस खान” के रिजवान लगने लगते हैं|

अपने स्तर की ये पहली हिंदी फिल्म है, और इस पर की गयी मेहनत के लिए इस फिल्म को एक बार देखा जाना जरूरी है|फिल्म की सफलता की मुख्य वजह शाहरुख ही रहेंगे, तकनीक और विशेष प्रभाव का नंबर दूसरा ही होगा|
तो बात फिर वही आकर अटकती है कि 150 करोड की लागत में लेखन पर किया गया निवेश कितना है? क्या हमें आज भी एक अच्छी साई-फाई फिल्म को बनाने के लिए और सफर तय करना होगा?

Sunday, October 23, 2011

शतरंज के खिलाड़ी




शतरंज के खिलाड़ी सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित पहली गैर बंगाली भाषा की फिल्म थी ! फिल्म 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से एक साल पहले की प्रष्ठभूमि पर है ! जब ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी उपनिवेशवाद नीति के तहत विभिन्न भारतीय साम्राज्य और राजाओं को सीधे अपने अधीन कर रही थी ! अवध (लखनऊ) का साम्राज्य सबसे आखिर में कंपनी के अधीन आने वाले राज्यों में से एक था, और अंग्रेजो की सेना जो उस वक्त अफगानिस्तान और नेपाल में युद्ध लड़ रही थी उसके लिए धन का स्रोत था !


फिल्म मुंशी प्रेमचंद की एक लघुकथा पर आधारित है ! अवध के तात्कालीन बादशाह वाजिद अली शाह (अमजद खान) है जिसे कम्पनी राजगद्दी से हटाने की योजना बना रही है, और बादशाह प्रशासन से दूर अपनी कला के प्रदर्शन और विलासता में डूबा हुआ है ! कम्पनी इस सत्ता परिवर्तन के लिए एक वैध रास्ता अपनाना चाहती है जिसके लिए वो एक नया सन्धि पत्र तैयार करती है जिस पर उसे बादशाह के दस्तखत चाहिए!
इन सभी राजनैतिक उथल-पुथल के बीच नवाब के अधीन बैठे दो जागीरदार मिर्ज़ा सज्जाद अली (संजीव कुमार) और मिर्ज़ा रोशन अली (सईद जाफरी) जिनके ऊपर अवध की रक्षा का जिम्मा भी है, अपने अंतहीन शतरंज के खेल में लगे हुए हैं| यहाँ तक की खेल की वजह से जहा मिर्ज़ा सज्जाद अली अपनी पत्नी खुर्शीद (शबाना आज़मी) से बेपरवाह हैं वही मिर्ज़ा रोशन अली अपनी पत्नी नफीसा (फरीदा ज़लाल) के अपने ही दूर के रिश्तेदार अकील (फारुख शेख) के प्रति आकर्षित होने को नज़र अंदाज़ किये हुए हैं !
दोनों ही खिलाड़ी इस बात से अनजान है की अंग्रेज न सिर्फ शतरंज भी दूसरे तरीके से खेलते हैं बल्कि उनकी राजनीति चालें भी अलग अलग हैं| अंग्रेज रेसिडेंट जेम्स ओउट्राम (रिचर्ड एटनबरो) बड़ी चतुराई से बादशाह के कला प्रेम को विलासता का रूप देकर उसे अयोग्य साबित करता है और उसे हटाये जाने के लिए एक नयी संधि बनाता है !
दूसरी तरफ अहंकार से भरे हुए दोनों शतरंज के खिलाड़ी घरवालों की वजह से अपने खेल में आ रहे व्यवधान से तंग आकर और अवध की रक्षा के लिए कदम उठाने की संभावना से भाग कर लखनऊ से दूर एक गाँव में जाकर खेलने की योजना बनाते है इस सच को नज़रंदाज़ करके कि अंग्रेजी सेना कभी अवध पर अपनी सत्ता जमा सकती है !
सत्यजित रे द्वारा निर्देशित यह सबसे महंगी फिल्म थी जिसमे हिंदी फिल्म जगत के कई बड़े अभिनेता और हालीवुड के रिचर्ड एटनबरो ने काम किया| किसी भी एतिहासिक फिल्म की पटकथा की खूबी इस बात पर निर्भर करती है कि तथ्यों को तोडा मरोड़ा ना जाए और ये बात तब और मुश्किल हो जाती है जब उन्ही तथ्यों के साथ निर्देशक आम धारणा के विपरीत दूसरे पहलू को भी सामने रख पाने में सफल हो| और इस महान निर्देशक की ये खूबी रही की उनकी ज्यादातर फिल्मों में कोई विलेन नहीं होता बल्कि अच्छे और बुरे दोनों ही पात्रों को अपनी बात कहने का मौका मिलता है| नवाब वाजिद अली शाह के लिए आम धारणा ये है की वो एक सिर्फ विलासी और अयोग्य राजा था, लेकिन इस फिल्म में भी निर्देशक तथ्यों को बिना तोड़ेमरोड़े, नवाब वाजिद अली शाह को अपनी बात कहने का मौका देता है और आप नवाब की बातो से इत्तेफाक भी रखेंगे| दूसरी तरफ अंग्रेज रेसिडेंट भी अपनी जगह सही है और वो किसी भी राजा, जो दरबार से ज्यादा कला में रूचि रखता हो, को राज गद्दी से हटाना, ब्रिटिश राज के प्रति अपना कर्तव्य समझता है| वही दोनों शतरंज के खिलाड़ियों की कहानी प्रतीकात्मक होकर भी मुख्य कहानी की तरह आगे बढती है!
निर्देशक ने उस वक्त के उत्तरदायी व्यक्तियों के उदासीन और विलासी होना दोनों खिलाड़ियों के माध्यम से ही दिखाया है ! दोनों ही जागीरदारों के बीच के संवाद आप को तात्कालीन राजनैतिक स्तिथि से अवगत कराते हैं !

दोनों ही जागीरदारो के बीच के संवादों में अच्छा व्यंग्य है ! फिल्म के संवाद अंग्रेजी में खुद सत्यजित रे ने और उर्दू में शमा जैदी और जावेद सिद्दीकी ने लिखे हैं! जागीरदार और उनके मुंशी के बीच होने वाले संवाद को निहायत ही खूबसूरती से पिरोया गया है जो तात्कालीन अवस्था को ज्यों का त्यों बयान करता है!
मुंशी, अंग्रेजी और हिन्दुस्तानी वज़ह के शतरंज के बीच के अन्तर को समझाते हुए कहता है :-
1) “प्यादा” पहली चाल में दो घर चल सकता है और मुखालिफ सिरे पर पहुँच जाए तो “मलिका” बन जाता है |
2) अंग्रेजी वजह से फायदा है की खेल झटपट ख़त्म हो जाता है !
बादशाह की राज्य के प्रति उदासीनाता और कला के प्रति प्रेम एक संवाद से ही जाहिर है की “सिर्फ शायरी और मोंसिकी ही मर्द के आँखों में आंसू ला सकते हैं”
अंग्रेजी के संवाद कुछ जगहों पर लंबे समय तक हैं जो हिंदी भाषी दर्शकों को थोडा बेचैन कर सकते हैं|

फिल्म का संगीत सत्यजीत रे ने ही दिया है! फिल्म में संगीत के नाम पर एक ठुमरी है “कान्हा मैं तोसे हारी “ जो न सिर्फ कर्णप्रिय है बल्कि दर्शनीय भी है| जिसे बिरजू महाराज ने स्वयं गाया भी है और नृत्य निर्देशित भी किया है| फिल्म का कला निर्देशन और वेशभूषा काफी सटीक है और ये आप को 1856 में ले जाने में सफल होते हैं ! सिनेमेटोग्राफर सौमेंदु राय ने अच्छा काम किया है और लखनऊ की गलियों और महलों को बखूबी फिल्माया है| दुलाल दत्ता द्वारा की गयी एडिटिंग विशेष ध्यान देने योग्य है| छोटे छोटे दृश्यों को बड़ी खूबी से बीच बीच में डाला गया है| फिल्म में किसी भी नाटकीय पार्श्व संगीत के लिए कोई जगह नहीं है|

फिल्म के सभी कलाकारों संजीव कुमार, सईद जाफरी रिचर्ड एटनबरो शबाना आज़मी तथा अन्य सभी ने अच्छा अभिनय किया लेकिन जिन दो लोगो के अभिनय की बात करनी चाहिए वे हैं अमज़द खान एवं विक्टर बनर्जी ! अमजद खान ने खुद को पात्र में ढालने के लिए अपने हाव भाव का बेहद उम्दा इस्तेमाल किया है वही वे जोर से बोलते हुए कभी कभी अमजद खान ही लगते हैं, विक्टर बनर्जी ने अपनी छोटी सी भूमिका में जान डाली है विशेषतः अपनी संवाद अदायगी में, मुख्यतः बंगाली भाषी होने के बावजूद वे जिस ढंग से उर्दू का उच्चारण करते है वो काबिल-इ-तारीफ है|
फ़िल्म को तीन फिल्मफेयर अवार्ड मिले थे जिसमें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी शामिल था ।
और हाँ फिल्म के सूत्रधार की आवाज़ अमिताभ बच्चन की है !
अंक:***




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निर्देशक:सत्यजित रे
निर्माता:सुरेश जिंदल
लेखक:मुंशी प्रेमचंद
कलाकारअमजद खान, शबाना आज़मी, फारुख शेख, संजीव कुमार, सईद जाफरी
संगीत:सत्यजित रे
फिल्म रिलीज़:10 मार्च, 1977

गरम हवा


गरम हवा

गरम हवा












निर्देशक    :   एम्. एस. सथ्यु
निर्माता    :   इशान आर्य , एम्. एस. सथ्यु एवं अबू सिवनी
लेखक     :   कैफी आज़मी , शमा जैदी
कहानी     :   इस्मत चुगताई
कलाकार    :   बलराज साहनी, फारुख शेख, गीता काक, शौकत आज़मी,             ए. के. हंगल, दीनानाथ जुत्सी एवं अन्य
संगीत      :   बहादुर खान वारसी  
कैमरा      :   इशान आर्य
प्रदर्शन तिथि :   १९७३
अवधि      :   १४६ मिनट
भाषा       :   हिंदी और उर्दू 

हिंदी सिनेमा के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की कतार में गरम हवा सबसे कम लागत में बनी फिल्मों में से एक होगी ! १९७३ में प्रदर्शित इस फिल्म की लागत ८ लाख रूपए के आस पास थी ! यह पहली फिल्म थी जिसने विभाजन के विनाश के बाद फैली हुई  एक अजीब सी शांति के भीतर जा कर जांच पड़ताल की ! एम. एस. सथ्यू द्वारा निर्देशित यह फिल्म भारतीय सिनेमा में कला फिल्मों को जन्म देने वाली फिल्मों में से एक है !
फिल्म प्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगताई के एक अप्रकाशित कहानी पर आधारित है ! आगरा में रह रहा एक जूते का व्यापारी सलीम मिर्ज़ा (बलराज शाहनी) जो विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जाना चाहता और भारत में ही रहना चाहता है ! सलीम मिर्ज़ा की लड़की अमीना अपने ही चचेरे भाई कासिम (जमाल हाशिम) के साथ प्यार करती है और दोनों शादी भी करना चाहते हैं ! अन्य भारतीय मुसलमानों की तरह सलीम मिर्ज़ा के रिश्तेदार भी एक एक करके पकिस्तान रवाना हो रहे है और कासिम भी अपने पिता के साथ पकिस्तान जाता है, इस वादे के साथ की वो वापस आ कर आमिना से निकाह करेगा ! 
सलीम मिर्ज़ा दुखी मन से सबको विदा कर रहे हैं इस उम्मीद में कि, एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा ! सलीम मिर्ज़ा अपने बड़े बेटे के साथ अपने व्यवसाय को चलाने में दिक्कत का सामना कर रहा है क्यूंकि उसे आज अपने उन अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है जो कल तक उसे आसानी से मुहैय्या थे, जिसकी वजह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसका मुस्लिम होना ही है !  
इसी बीच अपने वादे के अनुसार कासिम निकाह के लिए वापस आता है लेकिन राजनैतिक कारणों से उसे निकाह के पहले ही गिरफ्तार करके वापस पकिस्तान भेज दिया जाता है और ये कासिम की अमीना से आखिरी मुलाक़ात साबित होती है!
दुखी अमीना को एक बार फिर अपना प्यार शमशाद (जलाल आगा) में दिखता है, जो अमीना को हमेशा ही अपनाना चाहता था !
व्यवसाय में हो रहा नुक्सान और सब जगह से मिल रही मायूसियों की वजह से सलीम मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी पाकिस्तान जाने का फैसला करता है और अब सलीम मिर्ज़ा अपनी बेटी, पत्नी (शौकत आज़मी) और छोटे बेटे सिकंदर(फारूख शेख, जो हमेशा से ही भारत में रहने का पक्षधर है) के साथ भारत में रह जाता है!
अमीना एक बार फिर मायूस है क्युकी शमशाद का परिवार भी पकिस्तान जा रहा !
एक बार फिर शमशाद भी अमीना से वादा करके जाता है कि वो अपनी माँ को भेजकर उसे पाकिस्तान बुलवा लेगा !  
पकिस्तान में अच्छा भविष्य मिल सकने की उम्मीद, भारत में उसके साथ हो रहा भेदभाव, घर से बेघर हो जाने और दूसरी तरफ बेटी का गम सलीम मिर्ज़ा की हिम्मत तोड़ देती है और इन परिस्थितियों में वो अपना आखिरी फैसला लेता है ! 
फिल्म की मूल भावना में विभाजन और गाँधी जी कि हत्या के बाद देश में मुस्लिम समुदाय में हो रही उथल पुथल और उनके प्रति सोच में आ रहे बदलाव को दिखाना है, जिसमे निर्देशक एम. एस. सथ्यू पूरी तरह सफल रहे है. हालाँकि ये उनकी पहली फिल्म थी लेकिन ऐसा फिल्म देखने के दौरान कभी नहीं लगता ! कम लागत में किसी भी फिल्म को समेटना अपने आप में ही एक चुनौती होता है ! सथ्यू ने निहायत ही नाजुक मामलों को बड़ी संजीदगी से सम्भाला है ! सलीम मिर्ज़ा बैंक मेनेजर और मकान मालिक से बात करते वक्त तथा सिकंदर नौकरी के साक्षात्कार के दौरान, सीधे कैमरे पर बात करता है और सामने वाले व्यक्ति को नहीं दिखाया जाता ! ये बहुत ही प्रभावशाली द्रश्य है जो न सिर्फ सीधे आप से सवाल करते हैं बल्कि ये भी दिखाते हैं कि कैसे कुछ रीढविहीनलोग परदे के पीछे रहकर और अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम देकर अन्याय हो जाने देते हैं ! 
फिल्म कि पटकथा कैफी आज़मी और शमा जैदी ने लिखा है ! फिल्म के संवाद बहुत ही आम भाषा में हैं और सभी परिस्थितियों का पूरी तरह खुलासा करने में सक्षम हैं. फिल्म मुस्लिम समाज के भीतर और उनके प्रति हो रहे हर तरीके के बदलाव और सोच के सभी पहलुओं को बखूबी छूती है !

१)      जहाँ एक ओर कुछ लोग सिर्फ मुस्लिम होने कि वजह से पकिस्तान जा रहे थे वही हिंदुओं के प्रति विश्वास आज भी कायम है जैसा कि एक मुस्लिम टाँगे वाला कहता है कि “यहाँ के हिंदू भाई बहुत अच्छे है वो चमड़े के धंदे को हाँथ भी न लगायेगे !”
२)      वही दूसरी ओर एक हिंदू टाँगे वाला सलीम से ज्यादा पैसे कि मांग करता है और बदले में कहता है कि “कम पैसे में जाना हो तो पकिस्तान चले जाओ ! “
३)      बात सिर्फ कुछ हिन्दुओ कि ही नहीं बल्कि कुछ मौका परस्त मुसलमानों कि भी है, कासिम मिर्ज़ा का पिता जो मुसलमानों का नेता है और अंत तक भारत में रुकने का वादा कर चुपचाप ही पकिस्तान चला जाता है !   
४)      एक और वर्ग है जो पकिस्तान के बनने के पक्ष में था लेकिन अब कांग्रेस में शामिल हो देश में ही रहने में भलाई समझता है !
५)      वही दूसरी ओर देश के पढ़े लिखे नौजवानों के लिए समस्याएँ धर्म देख कर नहीं आ रही हैं बल्कि बेरोजगारी सबके हिस्से में है और एक शिक्षित मुस्लिम नौजवान (फारूक शेख) अपनी असफलता को सिर्फ धार्मिक भेदभाव बताकर मैदान छोड़देने में यकीन नहीं रखता !
६)      पाकिस्तान के प्रति अविस्वास भी है जिसके लिए फिल्म में कासिम मिर्ज़ा अपने भतीजे को समझाते हुए कहता है कि “पकिस्तान में उन्हें पतंग उड़ाने कि इज़ाज़त नहीं है जो पतंग के कट जाने पर रोते हैं ! “
७)      ऊंचे ओहदों पर बैठे कुछ मुस्लिम भी अपनी वफ़ादारी के प्रदर्शन में मुस्लिम के साथ ही भेदभाव कर रहे हैं !
८)      साथ साथ अमीना कि कहानी विभाजन का आम जिंदगी में पड़ने वाला असर भी दिखाती है !
 सिनेमेटोग्राफर ईशान आर्या जो इस फिल्म के निर्माताओं में से एक थे, ने आगरा और फतेहपुर सीकरी के दृश्यों को अच्छे से फिल्माया है ! ईशान आर्य ने एडिटर के काम को आसान किया इसमे बहुत सारे द्रश्य आइसे हैं जिसमे कोई कट नहीं है ! फिल्म में एक कव्वाली है जिसका संगीत और फिल्मांकन दोनों ही बेहतर हैं. 
फिल्म में अदाकारी सबसे ज्यादा काबिल-इ-तारीफ़ है ! सभी कलाकारों ने बेहद उम्दा अभी ने किया है ! गीता काक ने एक आम मुस्लिम लड़की का किरदार अच्छे से निभाया है ! फारुख शेख जिनकी ये पहली फिल्म थी शौकत अजमी जलाल आगा, दीनानाथ जुत्सी , जमाल हासिम सभी अपनी जगह अच्छे हैं ! दादी की भूमिका में एक स्थानीय महिला बदर बेगम को लिया गया जिसने एक मंझे हुए कलाकार की तरह ही काम किया औए उसकी ज़बान में एक स्थानीय महक और हास्य दोनों है ! लेकिन जिस कलाकार के लिए ये फिल्म देखी जानी जरूरी है वे हैं बलराज शाहनी. किसी भी महान कलाकार का एक सबसे अच्छा काम बता पाना मुश्किल ही है फिर भी ये कहा जा सकता है की बलराज शाहनी के ये सबसे उम्दा कामों में से एक है !
बलराज शाहनी हमेशा ही प्रतिकियातमक द्रश्यो में बिना संवाद के ही अपनी हाव भाव से सब कुछ कह देने वाले कलाकार है! फिर वो बैंक मेनेजर के सामने हो किराए का मकान ढूँढ रहे हों या अपने बड़े बेटे की बातो को सुनकर जवाब ना दे पा रहे हों. अफ़सोस की ये महान कलाकार अपनी इस महान अभिनय को देखने के लिए जिंदा न रहा! 
फिल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमे सदभावना के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार और तीन फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले !             

फिल्मों को अपने विवादस्पद विषयों कि वजह से प्रतिबंधित करना भारत में नया नहीं है बल्कि ये फिल्म तो एक कदम आगे ही है, फिल्म के विवादित हो जाने कि सम्भावना ने इसके निर्माता को फिल्म बीच में ही छोड़ देने पर मजबूर किया और एन.एफ.डी.सी. के सहयोग से इस फिल्म को पूरा किया गया ! बाद में प्रदर्शन के पहले निर्देशक को ये फिल विभिन्न दलों के राजनेताओं को दिखानी पड़ी ! आज के सन्दर्भ में भी ये फिल्म एक सबक है ! फिल्म के निर्मातों का मार्क्सवादी विचार का होना फिल्म के अंत में परिलिक्षित होता है !

समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की जिम्मेदारी है !
आज हम जो पेड़ काट रहे हैं उनके बीजों को हम इस फिल्म में बोते हुए देख सकते हैं !                                                             

Sunday, October 16, 2011

Amitabh Bachchan and Muhammad Ali


starring Amitabh Bachchan and Muhammad Ali





"Muhammad Ali, celebrated heavyweight boxer, has been offered the role of an African revolitionary in the film 'Zameen', written by Harbance Kumar and to be produced by Prakash Mehra. The film's hero Amitabh Bachchan, the producer, and Amitabh'a younger brother can be seen in photograph at Muhammad Ali's home in Los Angles."
From Debonair, December 1979

A stunning color photograph of an Indian actress

A stunning color photograph of an Indian actress in 31 Dec 1951 issue of LIFE about Asia.



The actress was Begum Para. Film journals of late 40s and early 50s were full of 'bust' talk about her. She was supposed to be 'sex-symbol' of her era. The caption to that photograph (above) mentioned how she 'drew favorable comparisons with Jane Russell' of The Outlaw fame.


 
Para was 24 at that time. Born in around 1927. The photograph did not directly give out her name, it was simply titled 'Movie Queens'

नया दौर (Naya Daur Movie)

नया दौर
नया दौर (Naya Daur Movie)

बी आर चोपड़ा हिंदी फिल्म जगत के उन महान निर्देशकों में से हैं जिन्होंने मनोरंजन को हमेशा वर्तमान की समस्या से जोड़ के समाज के लिए एक सन्देश और समस्या का हल देने का प्रयास किया है| नया दौर फिल्म भी इस श्रंखला की एक कड़ी है और अपने उद्देश्य में पूर्णतया सफल होती है|
वैसे तो 50 साल पहले बनी एक एतिहासिक फिल्म की आज समीक्षा करना बहुत मुश्किल है, लेकिन इस फिल्म की यही सबसे बड़ी खासियत है कि दौर कोई भी हो ये फिल्म नयी ही लगेगी|
1950 का दशक भारत के नव-निर्माण का दशक रहा है! नवनिर्माण और नए विचारों को हमेशा ही वर्तमान परिस्थितियों से एक जद्दोजहद करनी पड़ी है| क्योंकि भारत ने तब तक मशीनीकरण के परिणाम को नहीं देखा था इसलिए देश में हो रहा मशीनी और उद्योगीकरण जनता में एक नयी बहस को जन्म दे रहा था|
फिल्म की कहानी आजादी के पश्चात देश में हो रहे मशीनीकरण और मानव के बीच हो रही बहस पर आधारित है |
फिल्म का नायक ( दिलीप कुमार ) एक तांगेवाला है जो गाँव में अपनी माँ और बहन के साथ रहता है| गाँव में आजीवका के दो ही साधन है एक लकड़ी का कारखाना और दूसरा तांगा| समस्या उत्पन्न होती है कारखाना मालिक के बेटे (जीवन) के कारखाने में मशीन लगवाने और तांगे के विरुद्ध मोटर गाडी लाने से| इस समस्या का कोई हल निकलता ने देख नायक कारखाने के मालिक के बेटे से एक बहुत ही कठिन और लगभग हारी हुए शर्त लगाता है| और इस शर्त में गाँव वाले नायक की सहायता करते हैं|
एक ओर मशीनीकरण जहां मालिक को फायदा पहुंचा रहा है वही कामगार को बेरोजगार कर रहा है | पटकथा की विशेषता इस बात में है कि फिल्म का खलनायक आम खलनायको की तरह फिल्म की नायिका पर बुरी नज़र रखने वाला नहीं बल्कि मशीनीकरण के माध्यम से विकास की बात करता है| इतना ही नहीं गाँव की जनता भी विकास के नाम पर पीछे नहीं हटती बल्कि दोनों ही तरीकों से होने वाले नफे नुकसान को समझना चाहती है |
लेकिन फिल्म को सिर्फ एक समस्या पर बनी फिल्म ही मान लेना इसको एक संकीर्ण दायरे में समेटना होगा ! ये खूबसूरत प्रेम त्रिकोण है ! जिसमे दिलीप कुमार और वैजंतीमाला की केमेस्ट्री देखते बनती है !
नायक की भूमिका में दिलीप कुमार ने निहायत ही उम्दा अभिनय किया है| दिलीप कुमार ने अपने अभिनय में हमेशा ही बारीकियों का ख्याल रखा है| उनकी चहरे का भाव और उनकी उठने वाली भौवें कई संवाद कर जाती हैं| इस फिल्म में किये गए अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिए दिलीप कुमार को फिल्म-फेयर के बेस्ट-एक्टर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था| वैजन्तीमाला बेहद खूबसूरत लगी हैं| अपने नृत्य के लिए प्रसिद्ध वैजंतीमाला ने इस फिल्म में बेहद साधारण लेकिन मनमोहक नृत्य किया है| फिल्म में रजनी (वैजंतीमाला) का पात्र अपनी पहचान रखता है और अपने विचार भी| वो दो दोस्तों की दोस्ती पर बलि चढ़ने को तैयार नहीं है और अपना फैसला सुनाने में सक्षम है| दोस्त की भूमिका में अजित ने न्याय किया है| जानी वाकर का अभिनय हमेशा की तरह बेहतर है|
कामिल राशिद द्वारा लिखे बेहतरीन संवादों को उतनी ही सादगी से परदे पर उतारा गया है| ओ पी नैय्यर द्वारा निर्देशित, साहिर के लिखे गीत आज भी लोकप्रिय है| ओ. पी. नैय्यर को इस फिल्म के लिए फिल्मफेयर अवार्ड भी दिया गया| फिल्म के सभी गाने कर्णप्रिय हैं लेकिन “उडें जब जब जुल्फें तेरी” सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ| पंजाबी लोक संगीतों पर आधारित गानों के साथ साथ नैय्यर जी का चिरपरिचित तांगा गीत (मांग के साथ तुम्हारा) भी है , लेकिन जो गाना फिल्म की मूल-भावना को दर्शाता है वो है “साथी हाथ बढ़ाना”| इसी फिल्म के साथ आशा जी भी मुख्य गायिकाओं की श्रेणी में आ गयी|
मूलतः श्याम श्वेत में प्रदर्शित इस फिल्म को 2007 में रंगीन में प्रदर्शित किया गया |
अंक:***1/2

निर्देशक:बी.आर.चोपड़ा
निर्माता:बी.आर.चोपड़ा
कलाकार:दिलीप कुमार, वैजन्ती माला, अजित
लेखक:अख्तर मिर्जा, कामिल रशीद
संगीत:ओ.पी.नय्यर
फिल्म रिलीज़:1957

Gandhi Agarbatti Scentbatti Ad


Gandhi Agarbatti Scentbatti Ad, 1948. Mont Blanc, 2009

 


The Diwali special issue of 'The Navyug' published on October 31, 1948, had Gandhi's picture in Bombay Company's Rat brand German incense sticks and jasmine hair oil.

(From private collection of Atul Shah [more at TOI])
And this was only days after Gandhi's death. At least the product looks complete Sawdeshi (in true Indian tradition even having a foreign touch)



And now. Mont Blanc is selling 241 (for Gandhi's 241 Mile Dandi March) Limited Edition 'Luxury' Pen having hand-crafted rhodium plated 18-carat gold nib depicting Gandhiji holding his trademark lathi — all in gold — for 11-14 Lakh. For those how are thinking of selling their house to buy it. Wait. There is also ‘Mahatma Gandhi Limited Edition 3000’ available for Rs.1.7 Lakh (for fountain pen) and Rs.1.5 Lakh (for roller ball. I always thought Fountain Pen rich). So just sell your silverware or burn those Indira Vikas Patras and get to own a piece of Gandhi.
And yes the company is giving 72 Lakh in donation to the Mahatma Gandhi Foundation. A bucket full of money.

-0-
And yes that is Nargis in Lux Ad in the first image.

Friday, September 16, 2011

गर्मी की एक शाम


कभी कभी घटनाओं को याद रखना जितना जरूरी होता है शायद उतना ही जरूरी भूल जाना भी होता है , मुश्किल है तो ये की किसको याद रखे और किसको भूल जाए ये हमारे बस में नहीं
पांच भाई बहनों में चौथे नंबर पर होने के कारण ना तो मेरी गिनती बडो में होती थी और ना ही मैं पूरी तरह से छोटा था ऐसी परिस्थिति में बच्चो से अपेक्षा की जाती होगी की वो बडो की तरह गलती न करके, छोटो की तरह रहे
मतलब आपके अधिकारों में जबरदस्त कटौती ! (ये शायद भूलने लायक बात हो)
लेकिन जो याद रखने लायक है और याद भी है, वो ये की भाई बहनों में खूब प्यार और हंसी मजाक के मौके पर मुझे मिलने वाला विशेष समय
हमारे घर में मध्यमवर्गीय परिवार की सभी विशेषताएं तो थी ही साथ साथ शायद घर की बनावट ने हमें और जोड़े रखा था, आज के समय की विशेष जरूरत तब हम भाई बहनों के लिए एक मुश्किल हुआ करती थी, मसलन किसी कमरे का दूसरे कमरों से पूरी तरह अलग होना घर की बनावट और घर में रखे हुए सामान किसी भी कमरे के दरवाज़े को इस तरह बंद करने की इजाज़त नहीं देते थे की, उसका संपर्क किसी भी दूसरे कमरे से टूट सके
लिहाजा हमेशा एक दूसरे के सामने !
दो-दो बड़ी बहनों का होना भाईओं के दैनिक जीवन में काफी आराम का कारण होता है लेकिन साथ ही साथ बड़ी बहनों को कुछ विशेषाधिकार भी होते हैंउम्र में बड़े होना और लड़की होना ये दोनों भिन्न भिन्न विशेषाधिकार प्रदान करते हैं ये उन दिनों की बात है जब अमिताभ बच्चन भैया और सुनील गावस्कर मराठी माणूस नहीं थे
गर्मी की छुट्टियों के दिन थे
तब बच्चो को शिक्षित करने के लिए जुलाई से अप्रैल तक का समय पर्याप्त समझा जाता था
गर्मियों से कुछ अनोखी बातें जुडी थी जो बाकी के साल भर नहीं हो सकती थी, मसलन दिन का खाना रसोई घर से बहार खाना, सारा दिन फर्श पर ही सोना और बैठना, ताश, कॉमिक्स, शाम होने का इंतज़ार और बात
शाम होने में अभी देर थी इसलिए अभी बहार का दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था मैं अपनी छोटी दीदी से इस बात की जिद्द कर रहा था की वो मेरे पसंद का खेल खेले जिसे वैसे ही खेलने में ज्यादा रूचि न हो उसको ये बात मनवाना ज्यादा मुश्किल होता है
दीदी लोगो  के प्रति सम्मान ने कभी हमे ऊंची आवाज़ में बात करने की इज़ाज़त नहीं दी थी , और ना ही हम खुद उस सीमा को तोडना चाहते थे, ऐसे ही आदर और सम्मान को दिल में रख जिद्द करते हुए अचानक मेरा हाँथ घूमा और दीदी के गाल पर जा के लगा
.........................ये मेरी तब तक की जिंदगी का सबसे बड़ा पाप था !
दीदी के रोने ने उस भरी गर्मी में मेरे पैरों को ठंडा कर दियासबसे पहला डर की, ये बात अम्मा के कानो तक जाने पर परिणाम क्या होगा सॉरी बोलना और सुनना तब तक दोनों ही नहीं सिखा था.. ऐसा करने वालो पर हम हंसा करते थे. अब इंतज़ार था की अम्मा को इसका पता कब चलेगामैं अकेले ही रहना चाहता थामैं अपने कानो को दीदी के कमरे में लगा गर्मी से जलते हुए स्टोर रूम में आके बैठ गया ... अब बस बुलावे का इंतज़ार था
डर और आत्मग्लानी एक दूसरे को दबाने की कोशिश कर रहे थेडर से मैं बहुत डरता था लेकिन आज आत्मग्लानी भी पूरी ताकत से लड़ रही थी
वक्त बीतता जा रहा था और मेरे शरीर से पसीने की धार बह रही थी .. उस टीन के छत के स्टोर रूम की भयानक गर्मी में अकेले बैठे रहने का एक सुकून था ... कोई हलचल होती न देख मैंने खुद ही सबके बीच जाने का फैसला किया
मैं उठा और उस कमरे के दरवाज़े पर पहुंचा !!
मैंने कमरे में घुसने से पहले अंदर की आहट लेने की कोशिश की लेकिन मेरे कान सिर्फ फुसफुसाहट सुन्न सकते थे! मैं कमरे के अंदर आया तीनो भाई बहनों ने मेरे तरफ देखा फिर एक दूसरे के तरफ और फिर अपने अपने काम पर लग गए.. आत्मग्लानी और दुःख ने मानो डर को अचानक ही खतम कर दिया
मैं भारी कदमो से दीदी के पास पहुंचा और पीछे से पास जाके धीरे से पूछा
छोटी, अम्मा को नहीं बताया क्या?
अचानक किसी ने बाहर का दरवाजा खोला , शाम हो चुकी थी..
मैंने दीदी को पीछे से पकड़ा पीठ में पुच्ची ली.. दीदी ने प्यार भरे गुस्से से बोला -
भाग यहाँ से
मैं बाहर भाग गया!
पसीने से भरे शरीर में बाहर की गरम हवा एक सकूं भरी ठंडक पहुंचा रही थी !
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