Tuesday, March 13, 2012


KAHAANI


हिंदुस्तान में सैकड़ों ऐसे शहर हैं जिनका अपना रवैय्या ही किसी कहानी से कम नहीं है, जरूरत है तो बस इस बात की, कि आप उस शहर का अपनी कहानी में कैसे उपयोग करते हैं। फिल्म कहानी कि कहानी में कलकत्ता भी एक कहानी है।


विद्या बागची (विद्या बालन) जो एक गर्भवती महिला हैं, इंग्लैंड से कलकत्ता अपने पति को ढूँढने आती है। उनकी इस खोज में राना (परम्ब्रता चट्टोपाध्याय) जो एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर हैं उनकी मदद करते हैं। फिल्म कि कहानी में जरा भी खुलासा करना फिल्म देखने वालों के मज़े को किरकिरा करना होगा, इसलिए बस इतना ही कहा जा सकता है कि कलकत्ता में विद्या को ये पता चलता है कि उसके पति के शक्ल का एक व्यक्ति और है और वो भी लापता है। अब इस खोज में आप भी शामिल हैं।


फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन उनका जिक्र यहाँ करना एक बार फिर कहानी को कही न कही थोडा खोल देना होगा. फिल्म एक सस्पेंस थ्रिलर है और इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि स्क्रिप्ट काफी बाँध के रखती है। आप आगे होने वाली घटनाओं को देखने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। हालांकि फिल्म अपने दूसरे भाग में अपनी पकड़ थोड़ी खोती है। जरूरत से ज्यादा आने जाने वाले पात्र, आपको थोडा भ्रमित करते हैं। फिल्म का अंत आप को हैरान कर देगा वही ये भी कहना होगा कि फिल्म जिस रफ़्तार और मूड से जा रही थी मुझे फिल्म का अंत उसके मुताबिक नहीं लगा हाँ अच्छा जरूर था।


निर्देशक सुजॉय घोस का काम अच्छा है, उन्होंने जहा कलकत्ता शहर को कहानी में अच्छे से पिरोया है वही वो विद्या के प्रग्नेंट होने को और अच्छे से उपयोग कर सकते थे। कहने का मतलब है कि दर्शक विद्या के प्रग्नेंट होने कि पीड़ा महसूस कर रहे थे और इस पीड़ा को थ्रिलर में और ज्यादा परिवर्तित किया जा सकता था। एक थ्रिलर और सस्पेंस फिल्म को देखने में ज्यादा मज़ा तब आता है जब आप वापस जाकर सारे बिंदुओं को जोड़ सके कहने का तात्पर्य है कि आप दर्शकों को ज्यादा से ज्यादा सूचना देकर राज़ को छिपाए रखने में सफल हों, यहाँ ऐसा नहीं है। कलकत्ता, बंगाली भाषा, पुलिस के एक नौजवान आफिसर का ड्यूटी से बाहर जाकर सच को खोजने कि कोशिश करना ये सब कुछ फिल्म के अच्छे पहलुओं में से एक है। एक राहत कि बात और कि निर्देशक ने पुलिस ऑफिसर का विद्या के प्रति लगाव को प्यार में बदलने कि कोई कोशिश नहीं कि वरना एक गाना तो ठूंसा ही जा सकता था।


नम्रता राव ने फिल्म कि एडिटिंग में कुछ नए आयाम दिखाए हैं, वही सत्यजीत पांडे कि सिनेमेटोग्राफी ठीक है। फिल्म का पार्श्व संगीत फिल्म के साथ मेल खाता है। विशाल शेखर का म्यूजिक साधारण है।


ये फिल्म फिर एक बार विद्या बालन के इर्द गिर्द ही घूमती है लेकिन ये फिल्म उनके कंधो पर है ऐसा नहीं है। फिल्म अभिनय से ज्यादा दृश्यों और कहानी कहने के अंदाज़ पर निर्भर करती है। ये सही है कि विद्या बालन एक अच्छी अभिनेत्री हैं, लेकिन मैं ये बात दावे से कह सकता हूँ कि विद्या बालन का गेटअप( पिछली कुछ फिल्मों में) उनकी अभिनय छमता का सबसे बड़ा तत्त्व है। विडम्बना है कि पात्र के जैसा दिखने कि तैयारी (जो किसी भी अभिनेता/अभिनेत्री से न्यूनतम मांग हो सकती है) को अभिनय छमता में परिवर्तित कर दिया गया है, जो उसका सबसे छोटा हिस्सा मात्र है।
ये फिल्म बंगाल में काम कर रहे अभिनेताओं के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के द्वार खोलेगी। पुलिस आफिसर कि भूमिका में परम्ब्रत चैटर्जी ने अच्छा काम किया है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने खान कि भूमिका में एक बार फिर दमदार अभिनय किया है। सास्वत चटर्जी जो एक बीमा एजेंट कि भूमिका में हैं उनका विशेष उल्लेख किया जाना जरूरी है। एक निहायत ही आम से भी ज्यादा आम लगने वाले व्यक्ति का खौफ पैदा करना ये हिंदी फिल्मो के लिए आम बात नहीं है।


तो कुल मिलाकर ये फिल्म देखने योग्य है। ये बात अलग है कि फिल्म बड़े सेंटर पर अपेक्षाकृत ज्यादा पसंद कि जायेगी।
क्युकी ये फिल्म कलकत्ता में बनी है, एक बंगाली निर्देशक ने बनायी है, रविंद्रनाथ टैगोर कि १५०वीं जन्म दिवस हाल ही में मनाया गया है, ऐसे में निर्देशक को इस बात का ख्याल रखना ही होगा कि “एकला चलो रे” जैसी कालजयी रचना का अर्थ कही व्यक्तिगत ना हो जाए।

AGNEEPATH


Agneepath





हिंदी सिनेमा में एक विशेष दर्शक वर्ग को केंद्रित कर फिल्में बनाना आजकल सबसे कम खतरे की बात है। फिर वो दबंग हो या सिंघम हो या जिंदगी ना मिलेगी दुबारा हो। लेकिन इस तरह की फिल्मों के साथ शायद मुसीबत ये है की ये आधे दर्शकों को आकाश की ऊंचाईयों पर लगती है तो आधे को कीचड में पड़ी बिलबिलाती लगती हैं। लेकिन इन देसी और डालर सिनेमा से हट के भी फ़िल्में हैं जो सभी दर्शक वर्गों में देखी और पसंद की जाती है। अग्निपथ इसी श्रेणी की फिल्म है।

धर्मा प्रोडक्शन की ये फिल्म अग्निपथ उनकी अपनी ही, इसी नाम से बनाई गयी फिल्म की रीमेक है जी 1990 में प्रदर्शित हुए थी। अग्निपथ (1990) ने पिछले 20 सालो में काफी नाम कमाया और यही नहीं अमिताभ बच्चन जो इस फिल्म के मुख्य पात्र थे उन्हें इस फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया, लेकिन  अमिताभ बच्चन के जीवन के मील का पथ्थर साबित होने वाली फिल्म के साथ शायद यही एक मात्र बुरी बात जुडी हुए है, वो ये की ये फिल्म बेहद असफल रही और अपनी लागत भी न निकाल पायी।

करन जौहर के पिता की एक निर्माता के रूप में असफलता भी करण के लिए इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा ही रही रही होगी। कहने का मतलब है करण जौहर का इसे पुनः बनाने का फैसला व्यावसायीक और भावनात्मक दोनों रहा होगा।

फिल्म की कहानी तकरीबन पुराने फिल्म के जैसे ही है। एक गाँव है मांडवा जहा विजय (मास्टर आरिष भिवंडीवाला) के पिता की ह्त्या कर दी जाती है कांचा चीना (संजय दत्त) के द्वारा। विजय अपनी माँ के साथ मुंबई चला आता है जहा उसके अंदर जल रही बदले की आग उसको राउफ लाला (ऋषि कपूर) के गैंग में शामिल कर देती है. 15 साल बाद अब विजय दीनानाथ चव्हाण बदले के लिए सक्षम है। इतना सक्षम की अब वो हृथिक रोशन बन चुका है. और इस बार वो नाक पर बैठी मक्खी से उड़ने की “गुजारिश”करने वाला नहीं बल्कि नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देता। अब देखना ये है विजय और राउफ लाला के संबंधों का क्या होता है, विजय कांचा चीना से मांडवा ले पाता है या नहीं, लेता है तो कैसे? ये जानने के लिए आप कौन सा सिनेमा जायेंगे ये आप पर निर्भर करता है हाँ ये जरूर है जहाँ भी जायेंगे वहाँ “तलाश”का ट्रेलर आप को बतौर बोनस मिलेगा।

निर्देशक करण मल्होत्रा की तारीफ़ करनी होगी की उन्होंने फिल्म की मूल भावना को जीवित रखते हुए एक एकदम नयी फिल्म बनायी है। हालांकि फिल्म में पुरानी फिल्म के सभी मुख्य दृश्यों को रखा गया है लेकिन फिर भी एक एकदम नयी महक के साथ हैं.

पठकथा ने बराबर अपनी पकड़ बनाए रखी है।कुछ हिस्सों में फिल्म की रफ़्तार कम होती सी दिखती है लेकिन जल्दी ही उस पर काबू भी पा लिया गया है। पियूष मिश्रा के संवाद अच्छे तो हैं लेकिन उनकी सारी अच्छाई संजय दत्त के हिस्से आये संवादों में ही दिखती है। फिल्म में सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है, और सीबू सिरिल ने सेट निर्माण कमाल का किया है। एडिटिंग पर थोडा ध्यान दिया जा सकता था क्युकी फिल्म की लम्बाई कुछ ज्यादा है। कुछ बातें और भी है जैसे निर्देशक ने ये नहीं बताया की एक रेड लाईट मोहल्ला अचानक से आदर्श नगर में कैसे परिवर्तित हो गया, एक सीन पहले एक दूसरे से अनजान पात्र अचानक एक दूसरे को पहचान कैसे गए, विजय का अपने अंतिम लक्ष्य को पाने से पहले अपनी ही ताकत को खतम करने का निर्णय, लेकिन सबसे ज्यादा अखरने वाली बात है फिल्म का अंत। कांचा चीना जो इतना बड़ा पात्र है, विजय से उसकी दुश्मनी जिस पर फिल्म की कहानी आधारित है, वो सब कुछ अचानक ही खतम हो जाता है। विजय की कांचा को हारने की सारी योजना धरी की धरी रह जाती है लेकिन “विजय”विजय की ही होती है.। हाँ ये बात जरूर है की हृथिक और संजय दत्त ने अपनी अदाकारी से इन बातों पर काफी हद तक पर्दा दाल दिया।

फिल्म के संगीत के लिए यही कहा जा सकता है की ये काफी चिकनाहट और चमेली की महक लिए हुए है। लेकिन ये सारी चिकनाहट और महक एक ही गाने में है... जी हाँ “चिकनी चमेली”इस गाने के विषय में दो बाते उल्लेखनीय है वो ये की श्रेया घोसाल ने इसे गया बहुत अच्छा है और दूसरा कटरीना कैफ ने इस गाने में ना सिर्फ डांस अच्छा किया है बल्कि कटरीना के स्लेट की तरह सपाट चहरे पर आप कुछ भाव भी देख सकते हैं। हालांकि फिल्म के बाकी गाने भी फिल्म की मांग जरूर पूरा करते हैं।

हम और आप ही नहीं ऋषि कपूर ने भी कभी ये ना सोचा होगा की अपने इस मासूम और चाकलेटी चहरे के साथ वो कोई ऐसा पात्र भी निभा सकते हैं, जिसके चेहरे से ही कमीनापन टपकता हो। उनकी बेहतरीन अदाएगी को उनको मिले गेटअप ने पूरा साथ दिया।

प्रियन्का चोपरा ना जाने क्यों डान-२ के बाद एक बार फिर नौकरी करती सी लगी. ले दे के कैसे भी उन्होंने अपने काम को खतम किया, हालाँकि ये बात अलग है की उनके पास ज्यादा कुछ था भी नहीं करने को। दूसरी तरफ हृतिक रोशन के पास जरूरत से ज्यादा करने को था। “जरूरत”थी विजय दीनानाथ को निभाने की और “ज्यादा”था अमिताभ बच्चन के साथ होने वाली तुलना से बचाना। इस लिहाज़ से “ज्यादा”की जरूरत, “जरूरत”से ज्यादा थी। हृथिक इस अग्निपथ को पार कर गए। हृथिक के लिए कहना होगा की वो मुश्किल दृश्यों को बड़ी आसानी से कर जाते हैं. चाहे अपना परिचय देने वाला द्रश्य हो, माँ के घर खाना खाने का या फिर फिल्म के अंत में बोली जाने वाली कविता।

लेकिन अब बात उस व्यक्ति की जिसको देख कर ही लगे की मांडवा लेना आसान नहीं जी हाँ कांचा चीना... संजय दत्त की हर बात , उनके काले कपडे, एक कान में बाली, गले के पीछे बना टैटू, उनकी हंसी उनकी चाल, डिजिटली मिटाई गयी उनकी भौएँ, सब कुछ उन्हें उस श्रेणी में खड़ा करता है जहां मोगाम्बो और शाकाल हैं।

किसी फिल्म को पुनः निर्माण का सीधा सा मतलब है तुलना। इस लिए कहा जा सकता है की नयी अग्निपथ अभिनय की द्रष्टि से बेहतर फिल्म है क्युकी पुरानी फिल्म जहा पूरी तरह अमिताभ के कंधो पर थी वही इस फिल्म में कई दमदार पात्र हैं।

लेकिन इस फिल्म का विजय ज्यादा नकारात्मक सोच रखता है। बदले की भावना उसके उन् सिद्धांतों को हनन करती है जो पुराने विजय के पास थे।

लेकिन एक बात है की फिल्म में एक बड़ी समानता भी है वो ये की , डा. हरवंश राय बच्चन द्वारा लिखी गयी कविता में जो अग्नी है उसका ये पथ तो बिलकुल ही नहीं रहा होगा। क्युकी आग लगाकर उस पर दौडना कविता का ये अर्थ तो बिलकुल नहीं है।

ROCKSTAR


रॉकस्टार


नए हिन्दुस्तान कि जनता के एक बड़े वर्ग को हमेशा ही एक राकस्टार कि जरूरत रही लेकिन बाकि सभी अधूरे सपनो के तरह इस ख्वाब को किसी हिन्दुस्तानी फिल्म ने पूरा नहीं किया. लन्दन-ड्रीम्स ने जहा निराश किया वही राक-ऑन का प्रभाव भी सीमित था.


और अब राक-स्टार...


पता है... यहाँ से बहुत दूर,


गलत और सही के पार,


एक मैदान है,


मैं वहाँ मिलूँगा तुझे...


ये बड़ा जानवर है, छोटे पिंजरे में नहीं समाएगा .


राकस्टार इन दो संवादों के बीच कि कहानी है.


ये कहानी है जनार्दन जाखर (रनबीर कपूर) कि जो दिल्ली के आम मध्यमवर्गीय परिवार से है और अपने आदर्श ‘जिम मोर्रिसन’ कि तरह एक राकस्टार बनना चाहता है. जहा जनार्दन के इस ख्वाब का आमतौर पर उसके दोस्तों द्वारा मजाक उडाया जाता है वही कॉलेज कैंटीन के मालिक खटाना (कुमुद मिश्रा) ही उसके ख्यालो से थोडा सहानुभूति रखता है. खटाना, जनार्दन को सलाह देता है कि एक बड़ा कलाकार बनने के लिए दिल का टूटना जरूरी है, राकस्टार बनने कि चाह में अब जनार्दन को अपना दिल तोडना है.                                          जनार्दन अपना दिल तोड़ने के लिए हीर कौल (नरगिस फाकिरी) को चुनता हैं, जो जनार्दन के कॉलेज कि एक ख़ूबसूरत सी लड़की है और जनार्दन जैसे किसी भी लड़के के पहुँच से बाहर है और इसलिए वो जनार्दन का दिल तोड़ने के लिए बिलकुल उपयुक्त है. एक ग़लतफ़हमी दूर होने के बाद जनार्दन और हीर जल्दी ही अच्छे दोस्त बन जाते हैं. दोनों के बीच कि दोस्ती में पनप रहे प्यार का अहसास हीर को होता है लेकिन वो इसका इज़हार कर सके इसके पहले ही हीर कि शादी हो जाती है और वो प्राग (Czech Republic) चली जाती है. इसी बीच जनार्दन को उसके अपने घर वाले चोरी का एक झूठा इलज़ाम लगा के घर से बाहर निकाल देते हैं और जनार्दन दर-दर कि ठोकरे खा रहा है. अचानक एक दिन किस्मत पलटा खाती है और एक संगीत कंपनी द्वारा न सिर्फ वो अनुबंधित है बल्कि उसे प्राग जाने का मौका मिलता है! प्राग में जनार्दन धूम मचा रहा है और अब वो “जोर्डन” है.


निर्देशक इम्तिआज़ अली और मुआज्ज़म बेग कि लिखी कहानी की पटकथा भी इम्तिआज़ ने ही लिखी है! लेखक ने एक युवा दिल के विद्रोही स्वभाव और उसके सही और गलत के परे जाने की मानसिकता की सही तरीके से व्याख्या की है और इसी वजह से कुछ सवालों का अनुत्तरित रह जाना स्वाभाविक है. लेकिन यही अनुत्तरित सवाल फिल्म की व्यावसायिक सफलता पर असर डाल सकता है . वैसे विवाहोत्तर बने प्रेमसंबंध की कहानी भारतीय जनता के लिए हमेशा ही सबसे ज्यादा संवेदनशील विषयों में से एक रही है. महानगरों में रहने वाली “क्रीमी लेयर” और शेष आम जनता की सोच के बीच आज भी  जमीन आसमान का फरक है और इसलिए ऐसे किसी भी संबंध की कहानी को अपनाने के लिए ‘आम जनता’ को एक विशेष कारण की जरूरत होती है. जो की यहाँ नहीं है.  इम्तिआज़ अली के इस फिल्म में भी नायिका को एक बार फिर अपने प्यार का अहसास तब होता है जब सामाजिक मर्यादा इसकी इजाज़त नहीं देती है. फिल्म का अंत  भी थोडा अनुत्तरित है. हालाँकि रनबीर के पात्र को बड़ी खूबसूरती से लिखा गया है. साधारण से लड़के से लेकर एक आक्रामक और कुंठित सफल राकस्टार की यात्रा बखूबी दिखाई गयी है. और हाँ राकस्टार बन जाने बाद भी वो अपने आदर्श ‘जिम मोरिसन’ की तरह शराब और ड्रग्स में नहीं फंसा हुआ है . इम्तिआज़ अली के लिखे हुए फिल्म के संवाद जहाँ गंभीर हैं वही दर्शकों को हंसाने में भी सफल रहे हैं.


निर्देशक इम्तिआज़ अली का निर्देशन हमेशा की तरह अव्वल दर्जे का है . प्रेम-संबंधों को इम्तिआज़ ने हमेशा ही खूबसूरती से निभाने का प्रयास किया है जिसमे वो हमेशा ही सफल रहे है. बल्कि मेरे विचार से इम्तिआज़ अली ने हमेशा ही अपनी बात कहने के लिए प्रेम-संबंधो का सहारा लिया है .. इसलिए उनकी फिल्में सिर्फ एक प्रेम-कहानी नहीं होती है . यहाँ भी सही-गलत की मर्यादा से बाहर एक आधुनिक सोच को निर्देशक ने सफलतापूर्वक दिखाया है या यु कहे की एक युवा “फोल्डर” पर “डबल-क्लिक” मार कर खोल दिया है. और इसकी हर फ़ाइल आप के सामने आ जायेगी .


सिनेमेटोग्राफर अनिल मेहता ने एक बार फिर कश्मीर के वही दर्शन कराये जैसे खूबसूरती हम अब सिर्फ किताबों में पढ़ रहे है. प्राग की सडको और स्टेडियम का ऊँचाई से फिल्माया गया द्रश्य बहुत अच्छे हैं. फिल्म को रोम और हिमाचल में भी फिल्माया गया है.


फिल्म के शुरू होने के कुछ देर बाद ही आप को अहसास हो जाएगा की फिल्म एक बेहतरीन एडिटर द्वारा एडिट की जा रही है. और आरती बजाज ने हमेशा की तरह ही बेहतरीन काम किया है. हालाँकि फिल्म की लम्बाई कुछ ज्यादा है लेकिन ये एडिटर के द्वारा कम नहीं की जा सकती थी, अलबत्ता एडिटर ने दृश्यों को एक से ज्यादा बार दिखाकर और कई दृश्यों को क्रम से बाहर आगे पीछे करके रोचकता बनाए रखी है.


सेट डिजाईन और कास्ट्यूमस पर विशेष ध्यान दिया गया है , अक्की नरूला और मनीष मल्होत्रा के द्वारा डिजाइन किये गए, रनबीर के कपडे बिलकुल अलग तरीके के हैं और पात्र के चरित्र के साथ मेल खाते हैं. नर्गिस के कश्मीर में पहने जाने वालो कपड़ो पर भी विशेष ध्यान दिया गया है.


ये फिल्म रनबीर कपूर के इर्दगिर्द ही घूमती है. रनबीर का ये अभी तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है. पहली बार रनबीर के चहरे पर बदलते हुए कई सारे भाव दिखेंगे जो हमने रनबीर की पिछली फिल्मों में नहीं देखा है. एक आम लड़के की मासूमियत, राकस्टार का अंदाज़, एक कुंठित सफल कलाकार सब कुछ रनबीर ने बखूबी किया है, निश्चित ही वो इस साल कई अवार्ड्स के लिए नामांकित होंगे. नरगिस फाकरी के लिए दो बातों में कोई दो राय नहीं हो सकती, पहली ये की वे खूबसूरत हैं और दूसरी ये की उन्हें अभिनय की द्रष्टि से अभी बहुत मेहनत करनी है. गनीमत है की उनकी आवाज़ को डब किया गया है. कुमुद मिश्रा थियेटर के जाने माने अभिनेता हैं और उन्होंने अच्छा काम किया है . पियूष मिश्रा की उपस्थिति दर्शकों को हमेशा ही हसाती है एक विशेष द्रश्य में उन्होंने कमाल किया है . शम्मी कपूर को एक बार फिर बड़े परदे पर देखना सुखद और भावुक है .


फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू संगीत है क्युकी ये एक राकस्टार की प्रेम-कहानी है, सो संगीत का महत्व दुगना हो जाता है.  यहाँ फिल्म की समीक्षा के साथ फिल्म के संगीत की समीक्षा करना इसके संगीत के साथ अन्याय करना होगा. इसकी समीक्षा अलग से की जानी चाहिए. यहाँ संक्षेप में ये कहा जा सकता है की, ऐ.आर. रहमान का हालीवुड फिल्मों में व्यस्तता भारतीय संगीत प्रेमियों के लिए चिंता का विषय बनती जा रही थी, लेकिन रहमान ने ना सिर्फ एक बेहतरीन संगीत दिया है बल्कि वो फिल्म की भावना के साथ भी पूरी तरह जाता है. बहुत दिनों बाद आप किसी फिल्म के सभी गानों सुनना चाहेंगे. मोहित चौहान की आवाज़ उनको प्रतीक्षित सम्मान दिलाएगी . इरशाद कामिल का लिखा गाना “ साड्डा हक” फिल्म में बहुत खूबी से फिल्माया गया है. रहमान का संगीत लोकप्रिय होने में थोडा वक्त लेता है और जल्दी ही अपनी ऊंचाईयों को छुएगा.


राकस्टार, प्रेम कहानी में उतनी सशक्त नहीं है जीतनी एक कलाकार की कहानी में. फिल्म को सभी वर्गों द्वारा प्रसंशा मिलना मुश्किल ही होगा, हाँ इम्तिआज़ अली का निर्देशन, रनबीर का अभिनए और फिल्म का एक बड़े कैनवास पर बना होना आप को सिनेमा घर तक ले जाने के लिए काफी है .


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