Tuesday, December 27, 2011

DON-2


सिंघासन का हिलना और बादशाहत का खतम हो जाना दो अलग अलग बातें हैं, इस लिहाज़ से शाहरुख खान आज भी हिंदी फ़िल्म्स के बादशाह हैं लेकिन उनको एक बात समझनी होगी की बादशाहत को कायम रखने के लिए सिंघासन को मज़बूत किये जाने का वक्त आ चुका है.

फरहान अख्तर द्वारा ५ साल के बाद निर्देशित फिल्म डान प्रदर्शित हो चुकी है. जिसमे
डान की (शाहरुख खान) नज़र अब यूरोप में अपनी धाक जमाने की है और इस सिलसिले में वो जर्मनी का एक बैंक लूटना चाहता हैं. लेकिन यूरोपीय माफिया के लोग डान को जान से मारना चाहते हैं, दूसरी तरफ इंटरपोल भी डान के पीछे है. ऐसे में डान अपने पुराने दुश्मन वर्धान (बोमन इरानी) की मदद चाहता है. इस लिए डान खुद को गिरफ्तार करवा मलेशिया की जेल में पहुँचता है जहा वर्धान पहले से अपनी सजा भुगत रहा है. यहाँ से दोनों जेल तोड़ कर भाग जर्मनी के एक बैंक को लूटने की योजना बनाते हैं जिसमे कुछ अन्य अपराधी भी उनकी सहायता करते हैं. इनके बनाए प्लान का क्या होता है और बाद में खुलने वाले राज़ क्या हैं ये देखना दिलचस्प हो सकता है. जीहाँ कहानी यही है. 

फिल्म की कहानी और पटकथा फरहान अख्तर, अमीत मेहता और अमरीश शाह द्वारा लिखी गई है. डान जैसी किसी फिल्म के दूसरे पार्ट लिए ऐसी लचर कहानी का चुनाव बिलकुल ही उपयुक्त नहीं था. पटकथा फिल्म के पहले हिस्से में कई जगह ढीली और उबाऊ है. फिल्म एक “मास्टर-प्लान” को अंजाम देने की कहानी है लेकिन उसके शुरू होते होते ही फिल्म का एक बड़ा हिस्सा खतम हो चुका होता है. लेखक किसी भी योजना में किसी तरह का कोई रोमांच पैदा नहीं कर सके. हालांकि की एक नकारात्मक पात्र को नायक बनाए जाने की अपनी सीमाएं होती हैं, लेकिन अचानक पात्र को सहानुभूति दिए जाने का प्रयास और जबरदस्ती “ह्रदय-परिवर्तन” जैसी हर कोशिश काफी हास्यास्पद लगती है. फिल्म की नायिका रोमा (प्रियंका चोपरा) और डान के बीच की “केमेस्ट्री” को दिखाने का हर प्रयास काफी हास्यास्प्रद लगता है. नायक की भूमिका कितना बड़ा कलाकार क्यों न कर रहा हो, उसके पात्र को दमदार बनाये जाने के लिए बाकी पात्रों में जान होना भी जरूरी है. जिसका यहाँ पूरी तरह आभाव है.
जिस तरह डान की नज़र यूरोप पर है ठीक उसी तरह शाहरुख और निर्माताओं की नज़र भी योरोप ओर विदेशी बाजारों पर ही है, इसीलिए डान के पीछे चाहे कितने ही मुल्को की पुलिस क्यों ना लगी हो वो घूमता बहुत है और  फिल्म के खतम होने के पहले तक हर खतरे से बाहर है, जैसे हर किसी ने डान को ना मारने की कसम सी खा राखी हो. फिल्म के बाद में खुलने वाले राज़ जरूर आप को चौंका सकते हैं. फिल्म एक बड़े कैनवास पर बनी है जो कई बार आपको याद दिलाती रहेगी की फरहान अख्तर ने ये बड़ा “कैनवास” कहा से लिया है. 
फरहान अख्तर ने दिल चाहता है जैसी फिल्म बनाने के बाद जब अभिनय में खुद को अजमाने का सोचा तो सबको लगा था की कही एक अच्छा निर्देशक ना खो जाए. अभिनय में अपने जौहर दिखाने के बाद डान-२ में उनकी बतौर निर्देशक वापसी इस बात का अहसास दिलाती है की निर्देशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कही न कही प्रभावित हुई है. फरहान के लिए शायद शाहरुख की उपस्थिति ही उनको इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा रही होगी. किसी भी अच्छी (एक्शन-थ्रिलर) फिल्म के लिए बारीकियों को समझाना जरूरी होता है ना की दर्शकों को भ्रमित कर अपना काम निकालना. कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ भी ना समझ में आने वाला डाटा का आना जाना और कीबोर्ड पर जोर जोर से इंटर मारना तो मानो हर समस्या का हल हो गया है. वैसे तो डान सारी दुनिया में यु आ जा रहा है जैसे उसने काफी यातायात के नियम भी ना तोड़े हों और अचानक उसको मास्क पहने की जरूरत पड़ जाती है. या फिर निर्देशक ये बताना चाह रहे हों की सिर्फ हमारी पुलिस ही नहीं जर्मनी की पुलिस भी उतनी ही निकम्मी है. फरहान अख्तर ने इतना सारा काम अपने हांथो में ले लिया की शायद वो किसी भी काम से न्याय नहीं कर पाए, उनके द्वारा लिखे गए संवाद भी औसत दर्जे के हैं. फिल्म में डान का पात्र और ज्यादा मजेदार एवं दमदार संवाद की मांग करता है जो फिल्म में कही नहीं है.
फिल्म का “बैगराउंड” संगीत अच्छा है लेकिन फिल्म संगीत में इस बार शंकर-अहसान-लॉय मात खा गए. औसत दर्जे का संगीत और कही कही उबाऊ पटकथा आप को पहली बार एक “आईटम-नंबर” का कमी महसूस कराएगा.
जेसन वेस्ट का सिनेमेटोग्राफी काफी अव्वल दर्जे की है. “कार चेस” जैसे द्रश्य हालांकि आप कई बार देख चुके है लेकिन जेसन ने अपना काम ऐसे कई दृश्यों में बखूबी निभाया है. रितेश सोनी और आनंद सुबया ने फिल्म की एडिटिंग काफी अच्छी की है, हालांकि तेज़ी से घटना क्रम बदल रही फिल्मों की एडिटिंग पूरी तरह सॉफ्टवेर पर निर्धारित हो गयी है. “एक्शन-कांसेप्ट” द्वारा किये गए एक्शन द्रश्य काफी अच्छे हैं.
अभिनय की द्रष्टि से प्रियंका चोपरा डान-१ के मुकाबले इस बार बहुत ही अनुपयुक्त लगती है, उनके पास ऐसे ज्यादा द्रश्य नहीं थे जिसमे वे कुछ प्रभाव छोड़ पाती. लारा दत्ता को कम काम मिले जाने की आशंका थी लेकिन उन्होंने इस आशंका को कही पीछे छोड़ दिया और वे तीन चार दृश्यों में ही देखी गयी. बोमन इरानी ने अच्छा काम किया है और एक द्रश्य में वे हास्य पैदा करने में सफल रहे है. अली खान और नवाब शाह ने अपने काम के साथ न्याय किया है. कुनाल कपूर भी अपने काम में जंचते हैं. ओम पुरी को डान -१ की वजह से फिल्म रखा जाना शायद मजबूरी रही हो.
अब बात उनकी जिसकी वजह से ये फिल्म बनाए जाने का सोचा गया होगा जीहाँ शाहरुख खान. एक लंबे अरसे के बाद के शाहरुख खान को गले में स्वेटर बांधे और डिजायनर सूट्स के बाहर देखना अच्छा लगा. शाहरुख खान का एक एक्शन हीरो का “गेटअप” काफी अच्छा है. शाहरुख ने दिखाया की वो “लव और लड़ाई” दोनों में एक सामान सक्षम हैं. फिल्म में संवादों का अच्छा न होना और किसी दमदार पात्र का सामने ना होना उनके अभिनय में वो रंग नहीं भर पाया जो हो सकता था. शाहरुख खान ने उनको फिर से एक एक्शन फिल्म में देखे जाने की इच्छा को जगा दिया है.
शाहरुख की उपस्थिति और उनका नया लुक दर्शकों को जरूर सिनेमा घरों तक खींच के लाएगा और यही निर्माता चाहते भी होंगे. फिल्म के प्रदर्शन का समय भी उपयुक्त है इसलिए फिल्म की सफलता तो लगभग निश्चित ही है. उम्मीद है शाहरुख की अगली एक्शन फिल्म इससे बेहतर होगी. 

Wednesday, December 7, 2011

“द डर्टी पिक्चर”


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फिल्म निर्माताओं का एक वर्ग आज भी इस बात पर पूरी तरह विश्वास करता है की इन्टरटेनमेंट के सिर्फ तीन ही मतलब हो सकते हैं - सेक्स सेक्स और सिर्फ सेक्स और उनका मानना है की अगर जेब में पैसे ठूसने हों तो कहानी में सेक्स ठूसने के बजाये अब सेक्स में कहानी ठूसो इस लिहाज़ से सिल्क स्मिता की कहानी का चुनाव न सिर्फ एक बेहतरीन व्यावसायिक कदम है बल्कि ये फिल्म निर्माताओं को पूरी छूट देता है की फिल्म की हीरोइन को दिखाने के लिए उसके चहरे को दूसरे नंबर पर रखा जाए
बालाजी फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत द डर्टी पिक्चर एक ऐसी लड़की रेशमा ( विद्या बालन ) की कहानी है जो गाँव से भागकर मद्रास आई है और एक फिल्म स्टार बनाना चाहती है आगे बढ़ने की चाह में वो कुछ भी करने के लिए तैयार है, और आमतौर पर जैसा होता है सब कुछ करने के बाद भी उसके हाँथ जो आता है वो है फिल्मों में उत्तेज़क डांस करना जो फिल्म की सफलता का एक बेहतरीन मसाला है रेशमा को सुपरस्टार सूर्या (नसीरुद्दीन शाह) के साथ समझौता करने के एवज में उसके साथ काम करने का मौका मिलता है और वो सूर्या द्वारा बराबर इस्तेमाल हो रही है और अब रेशमा का नाम है सिल्क अब्राहिम (इमरान हाशमी) एक निर्देशक है जो विवेकपूर्ण फिल्मे बनाता है इसलिए फिल्मो के घटिया मसालों से नफरत भी करता है रमाकांत (तुषार कपूर) जो सूर्या का भाई है वो पेशे से एक फिल्म लेखक है इधर सिल्क का सूर्या द्वारा खुद को इस्तेमाल किये जाने का सच सामने आने के बाद वो सूर्या के भाई रमाकांत से इश्क की पींगे बढाने लगती है एक ऐसा वक्त आता है जहाँ सिल्क ना सिर्फ  रमाकांत द्वारा भी ठुकरा दी जाती है बल्कि इस सदमे के फलस्वरूप उसका शराब में डूबा रहना अब उसको काम से भी दूर ले जाता है कुछ घटनाक्रमों के बाद अब्राहिम, सिल्क की ओर देखता है जहा सिल्क के पास न अब रूप बचा है और न रुपया अब्राहिम और सिल्क आप को फिल्म के समापन पर ले जाते हैं

रजत अरोरा द्वारा लिखी गयी पटकथा एकदम उद्देश्यहीन तरीके से आगे बढती है और ज्यादातर जगहों पर उबाऊ है फिल्म में रोचकता बनाये रखने के लिए घटिया संवादों का सहारा लिया गया है फिल्म तथाकथित तौर पर दक्षिण भारतीय फिल्मो की अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है लेकिन जिस तरीके से सिल्क स्मिता के चरित्र को लिखा और दिखाया गया है, उसको देखकर ये समझना मुश्किल है की आखिर ये कहानी किसी भी निर्माता को फिल्म बनाने के लिए प्रेरित क्यों कर सकती है ना तो सिल्क का विद्रोही स्वभाव उभर कर आता है न ही उसके फ़िल्मी चकाचौंध के पीछे की असली जिंदगी का दर्द दिखता है न ही दर्शकों को पात्र से सहानभूति होती है फिल्म के एक संवाद में अब्राहिम, सिल्क से कहता है की “ तुम्हारे लिए आगे की ४ लाईन हैं बाकी की ४० लाईन मेरे लिए हैं” निर्माता निर्देशक ने आगे की उन ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है और पूरी कोशिश की है की आगे की ४ लाइन को पीछे की ४० लाईन तक कैसे बढ़ाया जा सकता है, जिसमे वे सफल भी रहे हैं हालांकि कुछ रीढविहीन फिल्म आलोचक इस बात पर विशेष जोर दे रहे हीं की फिल्म परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है लेकिन आप परिवार के साथ देखने के पहले ये सुनिश्चित कर ले की आप के परिवार और इन समीक्षकों के परिवार में क्या फर्क है
 फिल्म में अभिनय की द्रष्टि से कुछ उल्लेखनीय बाते जरूर है, जैसे की इस फिल्म को देखने की सिर्फ और सिर्फ एक वजह हो सकती है वो है विद्या बालन का इस पात्र को करने के लिए हाँ बोलना भारतीय सिनेमा में कितनी ऐसी अभिनेत्रियां होंगी जिन्होंने परदे पर खुद को सांवली, मोटी, उत्तेजक और कामुक या एक ढले हुए चहरे वाली अभिनेत्री दिखाने के लिए हाँ की होगी, और ऐसा करने के लिए मेहनत करना तो दूर की बात है विद्या को न सिर्फ इस अभिनय के लिए बल्कि ऐसा करने की हिम्मत के लिए भी प्रशंशा मिलनी चाहिए, और निसंदेह वे इस साल के कई पुरस्कारों से नवाजी जा सकती है इमरान हाशमी पर लगे फ़िल्मी ठप्पे के विपरीत उन्हाने ने ऐसे निर्देशक का रोल किया है जो फिल्मो में सेक्स और हिंसा को पसंद नहीं करता है जिसमे वो पूरी तरह जंचते है एक बात यहाँ कहना जरूरी है की नसीरुद्दीन शाह के फ़िल्मी जीवन पर नज़र डाली जाए तो इस रोल के लिए उनकी प्रसंशा नहीं की जा सकती हालांकि उन्होंने अपने काम को बेहतर ढंग से किया है लेकिन ये आपको सोचने पर मजबूर कर सकता है की क्या अब इन बड़े और महान अभिनेताओं को ऐसे रोल भी आकर्षित कर सकते हैं ?
तुषार कपूर ठीक हैं   

विशाल शेखर का संगीत फिल्म के मुताबिक ही है “उह्ह ला ला” चालू गाना है जो कुछ दिन अच्छा लगेगा, “मेरा इश्क सूफियाना” हालाँकि कर्णप्रिय है लेकिन उसके आते आते आप अपना संय्यम खो चुके होते हैं विजय एंथोनी द्वारा संगीतबद्ध गाना “नाक मुक्का“ जो बैकग्राउंड में बजाता है कुछ उम्मीद जगा सके उसके पहले खतम हो जाता  है   हालाँकि फिल्म के दोनों ही गाने फिल्माए अच्छे से गए है फिल्म की लम्बाई कम हो सकती थी, कई जगहों पर फिल्म बहुत धीरे आगे बढती है लेकिन उसका ठीकरा एडिटर के सर नहीं फोड़ा जा सकता प्रिया सुहास ने ८० के दशक का लुक अच्छा दिया है हालांकि उन्हें ज्यादातर फिल्मो के सेट ही दिखाने थे जो अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता की मांग नहीं करते 

फिल्म निर्देशक मिलन लुथरिया ने हमेशा ही सिनेमा की आगे की ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है और इस बात के लिए वो हमेशा ही चालू दर्जे के और जरूरत से ज्यादा “डायलागबाजी” ( काछे धागे, ... मुंबई ) पर बहुत यकीन करते हैं लेकिन इस फिल्म की विषयवस्तु ने उन्हें और भी मौक़ा दिया है की वे विशेष दर्शक वर्ग के लिए कुछ और भी “विशेष” दे पाए और उन्होंने अपने दिल की बात अब्राहिम के जरिये कही भी है की सफल निर्देशक विवेकपूर्ण फिल्मे बनाने वाला नहीं होता बल्कि वो होता है जो किसी भी स्तर तक जा के अपनी फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल करा सके  

अंततः ये कहा जा सकता है की जिस तरह से आज सेक्स और हिंसा को फ़िल्मी परदे पर मान्यता दिलाई जा रही है सिल्क स्मिता को अपने ८० के दशक में फिल्मो में आने का अफ़सोस होगा अगर वो आज होती तो शायद उन्हें आत्महत्या ना करनी पड़ती

“द डर्टी पिक्चर” सिल्क स्मिता द्वारा अभिनीत B-ग्रेड फिल्मो की तरह ही एक फिल्म है जिसे सेंसर बोर्ड और निर्माता दोनों ने ही A-ग्रेड दिया है, और इसमे सिल्क १० मिनिट के लिए नहीं बल्कि २ घंटे के लिए हैं

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